December 26, 2024 7:46 pm

क्यों वेश्यालय की मिट्टी से बनाई जाती है माँ दुर्गा की मूर्ति?

सोशल संवाद / डेस्क : दुर्गा पूजा का पर्व पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि पूरे भारत में बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। वैसे तो यह पूरे 9 दिनों तक चलने वाला पर्व है लेकिन पश्चिम पंजाल में इसे मुख्य रूप से 6 दिनों तक मनाया जाता है। छह दिवसीय यह त्योहार नवरात्र के 5वें दिन से शुरू होता है और विजयदशमी तक चलता है। इस दौरान भव्य पंडालों में मां दुर्गा की विशाल मूर्तियों को स्थापित किया जाता है और विजय दशमी के दिन इसे विसर्जित कर दिया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि दुर्गा पूजा में जो दुर्गा माता की मूर्ति स्थापित की जाती है उसका निर्माण खास तरह की मिटटी से किया जाता है जी हा इसमें मां दुर्गा  की मूर्ति में खास किस्म की मिट्टी शामिल की जाती है।

मां दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए कहीं पांच तो कहीं दस तरह कि मिट्टी ली जाती है। ऐसा कहते हैं कि देवों और प्रकृति के अंश से मां दुर्गा का तेज प्रकट होता है, इसलिए इसमें कई जगहों की मिट्टी को शामिल किया जाना जरूरी है। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस प्रतिमा को बनाने के लिए वेश्यालय के आंगन की मिट्टी का प्रयोग किए जाने की भी परंपरा है।

हिंदू धर्म की मान्यता के मुताबिक मां की मूर्ति बनाने में गंगा की मिट्टी, गोमूत्र, गोबर और चौथी वेश्यालय की मिट्टी अहम होती है। यह सदियों से परंपरा चली आ रही है। आइए जानते हैं वेश्यालय की मिट्टी से ही मां दुर्गा की मूर्ति को तैयार क्यों किया जाता है? समाज में वेश्याओं को सामाजिक रूप से अलग रखा जाता है। जिनकी अहम भूमिका को दर्शाते हुए वेश्यालय के आंगन की मिट्टी से मां दुर्गा के मूर्ति का निर्माण किया जाता है, जिससे उनकी भी महत्ता बढ़ सके और उन्हें भी पवित्र माना जाए। एक धारणा के अनुसार, एक वेश्या मां  दुर्गा की भक्त थी। लेकिन वेश्या होने के कारण उसे समाज सम्मान प्राप्त नहीं था और उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया गया था। कहा जाता है कि माता रानी ने भक्त को समाज के तिरस्कार और यातनाओं से बचाने के लिए स्वयं आदेश देकर उसके आंगन की माटी से अपनी मूर्ति का निर्माण करवाया। इसके बाद से ही यह परंपरा शुरू हुई। जानकारों के अनुसार शारदा तिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि आदि जैसे ग्रंथों में इसकी पुष्टि भी की गई है।

इसके अलावा इस मिट्टी के इस्तेमाल के पीछे कई और धारणाएं भी हैं जिनमें एक धारणा ये है कि जब कोई पुरुष किसी वेश्यालय में जाता है तो वो अपनी सारी पवित्रता और गुणों को वेश्यालय की चौखट के बाहर छोड़ देता है और वहां से लौटते हुए पाप का बोझ लेकर जाता है।इसलिए चौखट के बाहर की मिट्टी पवित्र होती  है।

जबकि एक और मान्यता ये है कि पुरुषों के लोभ और वासना की वजह से ही वेश्यालयों की शरुआत हुई है। वेश्याएं पुरुषों की काम, वासना को धारण कर खुद को अशुद्ध और समाज को शुद्ध करती हैं। लेकिन इसके बदले वेश्यावृति वाली स्त्रियों को समाज से बहिष्कृत माना जाता है। वो अपनी पूरी जिंदगी तिरस्कार झेलती हैं। यही कारण है कि वेश्यालय की मिट्टी का उपयोग दुर्गापूजा जैसे पवित्र कार्यों में कर उन्हें थोड़ा ही सही लेकिन सम्मान देने के लिए किया जाता है।

वहीं, कई लोग इस परंपरा को समाज में सुधार और बदलाव लाने के तौर पर भी देखते हैं। इन लोगों का मानना है कि मूर्तियों के निर्माण में वेश्यारलय की मिट्टी के इस्तेमाल का मकसद उस पितृसत्तामक समाज के मानस को कचोटना है जिसकी वजह से महिलाओं को नर्क में धकेलने वाला ये कारोबार चलता है।

इन सभी मान्यताओं की वजह से इस अनोखी प्रथा का चलन शुरू हुआ और दुर्गा प्रतिमा के निर्माण के लिए वेश्यालय की मिट्टी का इस्तेमाल जरूरी हो गया। मां दुर्गा की सबसे ज्यादा मूर्तियां कोलकाता के कुमरटली इलाके में बनाई जाती हैं। यहां कोलकाता के सबसे बड़ी वेश्यालय सोनागाछी की मिट्टी ली जाती है। इसके अलावा, इसमें गंगा घाट से ली गई मिट्टी का भी प्रयोग होता है।देवी की मूर्ति बनाने वाले कारीगर देशभर से यहां मिट्टी लेने आते हैं। मूर्ति बनने बाद इन्हें बड़े-बड़े पंडालों में स्थापित किया जाता है और पंचमी तिथि से इसकी पूजा-पाठ शुरू हो जाती है।

ऐसी मान्यता है कि मंदिर का पुजारी या मूर्तिकार वेश्यालय के बाहर जाकर वेश्याओं से उनके आंगन की मिट्टी भीख में मांगता है। मिट्टी के बिना मूर्ति निर्माण अधूरा है इसलिए मूर्तिकार तब तक मिट्टी को भीख स्वरूप मांगता है जब तक कि उसे मिट्टी मिल न जाए। अगर वेश्या मिट्टी देने से मना भी कर देती है तो भी वह उनसे इसकी भीख मांगता रहता है। प्राचीन काल में इस प्रथा का हिस्सा केवल मंदिर का पुजारी ही होता था लेकिन जैसे -जैसे समय बदला पुजारी के अलावा मूर्तिकार भी वेश्यालय से मिट्टी लाने लगा और ये प्रथा अभी भी जारी है।

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