आखिर समुद्र मंथन की क्या थी आवश्यकता , जाने सम्पूर्ण कथा

सोशल संवाद/डेस्क (रिपोर्ट: तमिश्री )- समुद्र मंथन की कहानी बहुत प्रचलित है। समुद्र मंथन पुराणों में वर्णित  एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है जो भागवत पुराण, महाभारत कथा विष्णु पुराण में मिलती है। जिसमें देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था।  लेकिन क्या आपको इसके पीछे की पूरी कहानी पता है।

तो हुआ कुछ ऐसा था की एक बार दुर्वासा ऋषि एवं उनके शिष्य शिवजी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत की और जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों का बहुत ही आदर सत्कार किया, जिससे दुर्वासा ऋषि अत्यत प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्र को विष्णु भगवान का ‘पारिजात पुष्प’ दिया।

धन सम्पति वैभव एवं इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस ‘पारिजात पुष्प’ को अपने प्रिय हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत हाथी विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र के अवहेलना कर दी और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया। आशीर्वाद के रूप में दिए भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ हीन यानि लक्ष्मी हीन हो जाने का शाप दे दिया।

जिसके  फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका सारा धन वैभव लुप्त हो गया।

जब यह खबर दैत्यों (असुरों) को मिली तो उन्होंने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित कर स्वर्ग पर अपना कब्ज़ा जमा लिया।

उसके बाद निराश होकर इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में पहुंचे । तब ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र इंद्र, भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। यदि तुम उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो तो उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव (स्वर्ग) पुनः मिल जाएगा।’’ फिर सब मिलकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे।

सभी देवगण भगवान विष्णु के पास पहुचे और उन्हें साड़ी बात बताई।

भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं, वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगणों से बोले—‘‘मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है।

क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए।

तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर पाएंगे । वे जो भी शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लो। शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’

भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।

समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे।

भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लिया। इस अवतार को कूर्म अवतार भी कहा जाता है. यह अवतार लेकर भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत को अपने कवच पर संभाला रखा था और मंदर पर्वत और नागराज वासुकि की सहायता से मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति की।

1.हलाहल विष– समुद्र मंथन में सबसे पहले हलाहल विष निकला. इसकी तीव्र ज्वाला से सभी देवता तथा दानव जलने लगे। सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। देवता,दानव तथा समस्त सृष्टि की रक्षा के लिए शिवजी इसे पी गये। विष के कारण शिवजी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिए शिवजी को नीलकण्ठ भी कहा जाता है। जब शिवजी विष को पी रहे थे तब इसकी कुछ बूंदे पृथ्वी पर गिर गई, जिसे साँप, बिच्छू जैसे विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया। इस कारण ये जन्तु जहरीले होते हैं।

२.कामधेनु गाय- समुद्र मंथन से हलाहल विष के बाद कामधेनु गाय निकली। इसे ऋषि-मुनियों को दे दिया गया। जैसे देवताओं में श्री हरि विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय,  भक्तों में नारद और तीर्थों में केदार नाथ श्रेष्ठ हैं। वैसे ही कामधेनु को गायों की सर्वश्रेष्ठ प्रजाति माना जाता है।

3.उच्चै:श्रवा घोड़ा- कामधेनू के बाद समुद्र मंथन से उच्चै:श्रवा घोड़ा निकला, जो कि उच्च श्रेणी का घोड़ा था।सफेद रंग के इस घोड़े में आकाश में उड़ने की भी अद्भुत शक्ति थी। यह घोड़ा असुरों के राजा बलि को प्राप्त हुआ।

4.ऐरावत हाथी-समुद्र मंथन से सफेद रंग का अद्भुत हाथी निकला। इस हाथी में आकाश में उड़ने की क्षमता थी।देवराज इंद्र ने इसे अपने वाहन के रूप में ग्रहण किया।

5.कौस्तुभ मणि- सभी आभूषणों और मणि में बहुमूल्य कौस्तुभ मणि भी समुद्र मंथन से प्राप्त हुई। इस मणि में ऐसा दिव्य तेज था कि चारो और प्रकाश की ज्योति छा गयी। भगवान विष्णु ने इसे स्वयं धारण कर लिया।  

6.कल्पवृक्ष– कल्पवृक्ष एक दिव्य औषधि वाला वृक्ष है। इसमें कई बीमारियों का उपचार करने की शक्ति है. यह वृक्ष देवराज इंद्र को प्राप्त हुआ। देवराज इंद्र ने कल्पवृक्ष को हिमालय पर्वत के उत्तर दिशा में सुरकानन स्थल पर लगाया।

7.अप्सरा रंभा- समुद्र मंथन से सुंदर अप्सरा निकली, जिसका नाम रंभा दिया गया। रंभा देवताओं को प्राप्त हुई।  यह देवराज इंद्र की राज्यसभा की मुख्य नृत्यांगना बन गयी।

8.माता लक्ष्मी– भगवान विष्णु के आदेश पर ही समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मंथन कराने का भगवान विष्णु का मुख्य उद्देश्य देवी लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करना था, क्योंकि जब विष्णुजी सृष्टि संचालन में व्यस्त थे तब देवी लक्ष्मी समुद्र की गहराइयों में समा गयी थीं। समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी पुनः बाहर आईं और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु का चयन किया।

 9.वारुणी- वारुणी एक खास तरह की शराब या मदिरा है, जिसकी उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई। जल से उत्पन्न होने के कारण इसे वारुणी कहा गया। देवता सुरापान करते थे और दानव मदिरा। इसलिए विष्णुजी के आदेश पर यह दानवों को प्राप्त हुई। चरक संहिता में वारुणी को मदिरा एक ऐसा प्रकार बताया गया हैस जिसका औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

10.चंद्रमा-चंद्रमा की उत्पत्ति भी समुद मंथन से ही हुई। जल से उत्पन्न होने के कारण ही चंद्रमा को जल का कारक कहा जाता है। चंद्रमा को भगवान शिव ने अपनी जटाओं में धारण कर लिया।

11.पांचजन्य शंख– समुंद्र मंथन से दुर्लभ शंख निकला, जिसे पांचजन्य शंख कहा जाता है। हिंदू धर्म में इस शंख का विशेष महत्व होता है। यह शंख भगवान विष्णु को प्राप्त हुआ। इसलिए कहा जाता है कि जहां यह शंख होता है वहां भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी वास करते हैं।

12.पारिजात- समुंद्र मंथन के समय एक वृक्ष निकला जिसे पारिजात वृक्ष कहा गया. इस वृक्ष को छूने मात्र से ही शरीर की थकान दूर हो जाती थी। पूजा में इस वृक्ष के फूल चढ़ाना शुभ होता है।

13.शारंग धनुष- समुद्र मंथन से निकला यह धनुष एक चमत्कारिक धनुष था। यह भगवान विष्णु को प्राप्त हुआ।

14.अमृत– जिस अमृत को प्राप्त करने के उद्देश्य से समुद्र मंथन कराया गया था वह अंत में निकला. भगवान धन्वंतरि स्वयं अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। धन्वंतरि को औषधियों के देवता मन जाता है। उन्होंने ही आयुर्वेद की रचना की। अमृत के लोभ में ही असुर समुद्र मंथन के लिए तैयार हुए थे तो जब समुद्र से अमृत लिए धन्वन्तरि निकले तब असुरों के धैर्य की सीमा टूट गई और वे धन्वन्तरि से अमृत छीनने की कोशिश करने लगे।

धन्वन्तरि से अमृत छीनने के बाद अपने तमो गुण प्रधान स्वभाव के कारण असुर आपस में ही अमृत पहले पीने के लिए लड़ने लगे पर कोई भी अमृत पी नहीं सका।

ये देखकर देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता का अनुरोध किया। तब विष्णु भगवान बोले कि असुरों का अमृत पान करके अमरत्व प्राप्त करना सृष्टि के लिए भी हितकारी नहीं है।

ये कहकर भगवान विष्णु ने स्त्री रूप धारण किया जो सब प्रकार के स्त्रियोचित गुणों से परिपूर्ण थी। भगवान विष्णु के इस अवतार को मोहिनी अवतार भी कहते हैं।

मोहिनी रूप धारण करके भगवान असुरों के बिच चले गए। असुरों ने ऐसा रूप लावण्य पहले नहीं देखा था तो सबके सब भगवान की माया से मोहित हो गए।

तब मोहिनी ने कहा कि ‘ आप सबलोग व्यर्थ ही झगड़ रहे हैं, मैं इस अमृत को देवताओं और दैत्यों में बराबर बाँट देती हूँ। ‘

इस प्रकार उन्होंने दो पंक्ति बनवायी पहली दैत्यों की और दूसरी देवताओं की और छल से अमृत सिर्फ देवताओं को ही पिलाने लगी।

मोहिनी के आकर्षण में मोहित दैत्य इसे समझ नहीं पाए पर राहु नामक दैत्य इस चाल को समझ गया और वेश बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया और अमृत पान कर लिया।

वह अमृत उसके कंठ तक ही पहुँचा था कि देवताओं की कल्याण भावना से प्रेरित होकर चन्द्रमा और सूर्य ने उसके भेद को प्रकट कर दिया।

जैसे ही भगवान विष्णु को इस बात का पता चला उन्होंने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर धर से अलग कर दिया पर अमृत पान के कारण राहु के शरीर के दोनों ही भाग जीवित रह गए।

सिर वाला भाग राहु और धर वाला भाग केतु कहलाया। तभी से राहु के उस मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ अटूट वैर निश्चित कर दिया, जो आज भी उन्हें पीड़ा पहुँचाता है।

अमृत का पान करके देवताओं की शक्ति फिर से बढ़ गयी और उन्होंने दैत्यों पर आक्रमण करके उन्हें पराजित कर दिया और स्वर्ग का राज्य प्राप्त कर लिया।

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