सोशल संवाद/डेस्क: झारखंड के खूंटी जिले में स्थित Dombari Buru इतिहास का वह अध्याय है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। यही वह जगह है जहां 9 जनवरी 1899 को अंग्रेजों ने आदिवासी लोगों पर गोलियां बरसाईं और सैकड़ों लोगों की जान ले ली।
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यह भूमि भगवान बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चल रहे उलगुलान आंदोलन का केंद्र थी। अंग्रेजों को यह जागृति और आदिवासी एकजुटता मंजूर नहीं थी, इसलिए उन्होंने सभा के दौरान अचानक हमला कर दिया। माना जाता है कि उस दिन लगभग 400 से ज्यादा लोग शहीद हुए, जिनमें बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग भी शामिल थे।
इतिहासकारों के अनुसार इतनी बड़ी त्रासदी में से केवल छह शहीदों की पहचान हो सकी, बाकी सभी का नाम इतिहास की मिट्टी में खो गया, लेकिन उनकी कुर्बानी आज भी लोगों की यादों में जिंदा है।
हर साल 9 जनवरी को यहां शहादत मेला लगता है। दूर-दूर से लोग इस मिट्टी को नमन करने आते हैं। मेला सिर्फ श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि संस्कृति, लोकगीत और आदिवासी पहचान का उत्सव बन चुका है।
आज डोंबारी बुरू पर 110 फीट ऊंचा शहीद स्मारक स्तंभ खड़ा है, जो शहीदों की कहानी आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का काम कर रहा है। सरकार ने इस स्थल का सौंदर्यीकरण भी किया है ताकि पर्यटक और श्रद्धालु आसानी से यहां आ सकें।
डोंबारी बुरू सिर्फ एक पहाड़ी नहीं, बल्कि झारखंड की आत्मा और आदिवासी अस्मिता का प्रतीक है। यह स्थान याद दिलाता है स्वतंत्रता संघर्ष केवल तलवार से नहीं, कंधों पर ढोए गए दर्द और बलिदान से भी लड़ा गया था।








