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कैसे बने बृहस्पति और शुक्राचार्य देवगुरु और असुर गुरु ? किसने दी उन्हें ये पदवी

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सोशल संवाद / डेस्क (रिपोर्ट : तमिश्री )- प्राचीन हिन्दू साहित्य में, बृहस्पति को देवताओ का गुरु माना गया है, और शुक्राचार्य को असुरो के गुरु । बृहस्पति देव विद्या, कर्म, व्यक्तित्व, धर्म, नीति के प्रतीक माने जाते हैं। जिसकी कुंडली में बृहस्पति ग्रह मजबूत होता है उसे जीवन में यश, कीर्ति, ज्ञान और सम्मान मिलता है। बृहस्पति धनु औऱ मीन राशि के स्वामी हैं। जबकि शुक्राचार्य राजनीति विज्ञान के विशेषज्ञ थे। उन्होंने शुक्र नीति की स्थापना की। आइए जानते हैं बृहस्पति को देवगुरु और शुक्राचार्य को असुर गुरु की पदवी कैसे मिली और किसने दी।

पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र अंगिरा ऋषि का विवाह स्मृति से हुआ। उनके उतथ्य व जीव नामक पुत्र हुए। जीव बचपन से ही शांत एवम जितेन्द्रिय प्रकृति के थे। वे समस्त शास्त्रों तथा नीति के ज्ञाता हुए।  अंगिरानंदन जीव ने प्रभास क्षेत्र में शिवलिंग की स्थापना की तथा शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया। महादेव ने उनकी आराधना एवम तपस्या से प्रसन्न हो कर उन्हें साक्षात दर्शन दिए और कहा,’ हे द्विज श्रेष्ठ ! तुमने बृहत तप किया है अतः तुम बृहस्पति नाम से प्रसिद्ध हो कर देवताओं के गुरु बनों और उनका धर्म व नीति के अनुसार मार्गदर्शन करो।’

इस प्रकार महादेव ने बृहस्पति को देवगुरु पद और नवग्रह मंडल में स्थान प्रदान किया। तभी से जीव, बृहस्पति और गुरु के नाम से विख्यात हुए। देवगुरु की शुभा,तारा और ममता तीन पत्नियां हैं। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज एवम कच नामक दो पुत्र हुए।  गुरुवार को बृहस्पति देव की पूजा का प्रावधान है ऐसे व्यक्ति जिनकी कुंडली में कोई दोष हो,पढ़ाई में मन न लगता है, विवाह में बाधाएं आ रही हो,तरक्की के रास्ते बंद हो गए हों उन्हें बृहस्पति देव की पूजा करनी चाहिए।

असुरो के गुरु का नाम सुक्रचार्य था। पौराणिक कथा के अनुसार शुक्राचार्य महर्षि भृगु के पुत्र और भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद के भांजे थे। महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थीं। ख्याति से महर्षि भृगु को दो पुत्र धाता और विधाता मिले और एक बेटी लक्ष्मी का भी जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया। महर्षि भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशनस और च्यवन आदि।माना जाता है कि उशनस  ही आगे चलके शुक्राचार्य बने।

वहीं एक अन्य कथा के अनुसार शुक्राचार्य महर्षि भृगु और हिरण्यकश्यपु की पुत्री दिव्या के संतान थे। शुक्राचार्य का जन्म शुक्रवार को हुआ इसलिए महर्षि भृगु ने इसका नाम शुक्र रखा था। जब शुक्र थोड़े से बड़े हुए तो उनके पिता ने उन्हें ब्रम्हऋषि अंगऋषि के पास शिक्षा के लिए भेज दिया। शुक्राचार्य के साथ उनके पुत्र बृहस्पति भी पढ़ते थे। माना जाता है कि शुक्राचार्य की बुद्धि बृहस्पति की तुलना में ज्यादा कुशाग्र थी, लेकिन फिर भी बृहस्पति के अंगऋषि ऋषि के पुत्र होने की वजह से उन्हें ज्यादा अच्छी शिक्षा मिलती थी, जिसके चलते एक दिन शुक्राचार्य ईर्ष्यावश उस आश्रम को छोड़ के सनकऋषि और गौतम ऋषि से शिक्षा लेने लगे।

शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब शुक्राचार्य को पता चला कि बृहस्पति को देवों ने अपना गुरु नियुक्त किया है तो उन्होंने भी ईर्ष्यावश दैत्यों के गुरु बनने की मन में ठान ली।  गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे जबकि शुक्राचार्य के पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे।

कहा ये भी जाता है की शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या अपनी माता ख्याति से सिखी थी। इस विद्या द्वारा मृत शरीर को भी जीवित किया जा सकता है। शुक्राचार्य इस विद्या के माध्यम से युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे। शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी। कहते हैं कि महामृत्युंजय मंत्र के सिद्ध होने से भी यह संभव होता है।

शुक्राचार्य को श्रेष्ठ संगीतज्ञ और कवि होने का भी गौरव प्राप्त है। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी ज्ञाता हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।

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