सोशल संवाद / डेस्क : हिंदू धर्म में नागों को पूजनीय माना गया है। सभी नाग देवताओं का अपना महत्व व स्थान है। नाग देवताओं की पूजा से हर प्रकार के दोष दूर होते हैं। सभी नागों में शेषनाग का प्रमुख स्थान है। कहते हैं कि भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग के आसन पर ही निवास करते हैं। यह भी कहा जाता है कि सृष्टि का भार भी शेषनाग के फन पर टिका हुआ है। पर आपने कभी ये सोचा है की ये नाग आय कहा से या इनकी उत्पत्ति कैसे हुई ।
नागों की उत्पत्ति से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। महाभारत में इस कथा का उल्लेख मिलता है। कथा के अनुसार, महर्षि कश्यप ने राजा दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया था। मगर इन सभी में से महर्षि को कद्रू और विनता सर्वाधिक प्रिय थीं। एक बार महर्षि ने प्रसन्न होकर दोनों से वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, ‘महर्षि मैं एक हजार पराक्रमी और शक्तिशाली पुत्रों की मां बनना चाहती हूं।’ जब विनता को यह बात पता चली तो उसने महर्षि से वर मांगा कि ‘हे स्वामी मुझे तो एक ही पुत्र चाहिए, मगर वह पुत्र इतना ताकतवर हो कि कद्रू के सभी पुत्रों का नाश कर सके।’ महर्षि ने दोनों पत्नियों को उनकी इच्छानुरूप वरदान दे दिए। इसके फलस्वरूप कद्रू ने एक हजार अंडे दिए और विनता ने गरुड़ को जन्म दिया। कद्रू के अंडों में से आगे चलकर सांप निकले और इस तरह सर्पवंश की उत्पत्ति हुई।
कद्रू के पुत्रों में शेषनाग सबसे ज्यादा ताकतवर थे। मगर उन्होंने अपनी मां कद्रू और अपने भाइयों का साथ छोड़ दिया। उन्होंने ब्रह्माजी की कठोर तपस्या की। ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने को कहा तो शेषनाग ने कहा कि हे प्रभु मेरी बुद्धि, धर्म और तपस्या में बनी रहे, बस मुझे यही चाहिए। इसके साथ ही ब्रह्माजी ने शेषनाग को समूची धरती को अपने फन पर धारण करने को भी कहा। तभी से माना जाता है कि ये सारी धरती शेषनाग के फन पर टिकी है। शेषनाग को अनंत नाम से भी पुकारते हैं। भगवान विष्णु की कृपा होने के कारण शेषनाग की बराबरी अन्य कोई भी नाग नहीं कर सकता है। शेषनाग को भगवान से वरदान प्राप्त है कि सृष्टि के नष्ट होने पर भी उनका विनाश नहीं होगा, इसलिए इनके नाम के आगे शेष लगा है।
वासुकि नाग को सभी नागों का राजा माना जाता है। वासुकि को भगवान शिव का परम भक्त माना जाता है। यही कारण है कि भगवान शिव उन्हें अपने शरीर पर धारण किए रहते हैं।
आप सबने ये तो देखा ही होगा की सांपो के जीभ के दो टुकड़े है । इसके पीछे भी एक कहानी है । एक बार कद्रू और विनता ने एक सफेद घोड़ा देखा। उसे देखकर कद्रू ने कहा कि इस घोड़े की पूंछ काली है और विनता ने कहा कि सफेद। इस बात पर दोनों में शर्त लग गई। तब कद्रू ने अपने नाग पुत्रों से कहा कि वे अपना आकार छोटा कर घोड़े की पूंछ से लिपट जाएं, जिससे उसकी पूंछ काली नजर आए और वह शर्त जीत जाए। कुछ सर्पों ने ऐसा करने से मना कर दिया। तब कद्रू ने अपने पुत्रों को श्राप दे दिया कि तुम राजा जनमेजय के यज्ञ में भस्म हो जाओगो।
श्राप की बात सुनकर सांप अपनी माता के कहे अनुसार उस सफेद घोड़े की पूंछ से लिपट गए जिससे उस घोड़े की पूंछ काली दिखाई देने लगी। शर्त हारने के कारण विनता कद्रू की दासी बन गई। जब गरुड़ को पता चला कि उनकी मां दासी बन गई है तो उन्होंने कद्रू और उनके सर्प पुत्रों से पूछा कि तुम्हें मैं ऐसी कौन सी वस्तु लाकर दूं जिससे कि मेरी माता तुम्हारे दासत्व से मुक्त हो जाए। तब सर्पों ने कहा कि तुम हमें स्वर्ग से अमृत लाकर दोगे तो तुम्हारी माता दासत्व से मुक्त हो जाएगी।
अपने पराक्रम से गरुड़ स्वर्ग से अमृत कलश ले आए और उसे कुशा (एक प्रकार की धारदार घास) पर रख दिया। अमृत पीने से पहले जब सर्प स्नान करने गए तभी देवराज इंद्र अमृत कलश लेकर उठाकर पुन: स्वर्ग ले गए। यह देखकर सांपों ने उस घास को चाटना शुरू कर दिया जिस पर अमृत कलश रखा था, उन्हें लगा कि इस स्थान पर थोड़ा अमृत का अंश अवश्य होगा। ऐसा करने से ही उनकी जीभ के दो टुकड़े हो गए।
नागराज वासुकि को जब माता कद्रू के श्राप के बारे में पता लगा तो वे बहुत चिंतित हो गए। तब उन्हें एलापत्र नामक नाग ने बताया कि इस सर्प यज्ञ में केवल दुष्ट सर्पों का ही नाश होगा और जरत्कारू नामक ऋषि का पुत्र आस्तिक इस सर्प यज्ञ को संपूर्ण होने से रोक देगा। जरत्कारू ऋषि से ही सर्पों की बहन (मनसादेवी) का विवाह होगा। यह सुनकर वासुकि को संतोष हुआ। समय आने पर नागराज वासुकि ने अपनी बहन का विवाह ऋषि जरत्कारू से करवा दिया। कुछ समय बाद मनसादेवी को एक पुत्र हुआ, इसका नाम आस्तिक रखा गया। यह बालक नागराज वासुकि के घर पर पला। च्यवन ऋषि ने इस बालक को वेदों का ज्ञान दिया।
उस समय पृथ्वी पर राजा जनमेजय का शासन था। जब राजा जनमेजय को यह पता चला कि उनके पिता परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग द्वारा काटने से हुई है तो वे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने नागदाह यज्ञ करने का निर्णय लिया। जब जनमेजय ने नागदाह यज्ञ प्रारंभ किया तो उसमें बड़े-छोटे, वृद्ध, युवा सर्प आ-आकर गिरने लगे। ऋषि मुनि नाम ले लेकर आहुति देते और भयानक सर्प आकर अग्नि कुंड में गिर जाते। यज्ञ के डर से तक्षक देवराज इंद्र के यहां जाकर छिप गया।
जब आस्तिक मुनि को नागदाह यज्ञ के बारे में पता चला तो वे यज्ञ स्थल पर आए और यज्ञ की स्तुति करने लगे। यह देखकर जनमेजय ने उन्हें वरदान देने के लिए बुलाया। तब आस्तिक मुनि राजा जनमेजय से सर्प यज्ञ बंद करने का निवेदन किया। पहले तो जनमेजय ने इंकार किया लेकिन बाद में ऋषियों द्वारा समझाने पर वे मान गए। इस प्रकार आस्तिक मुनि ने धर्मात्मा सर्पों को भस्म होने से बचा लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार, सर्प भय के समय जो भी व्यक्ति आस्तिक मुनि का नाम लेता है, सांप उसे नहीं काटते।
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