करवा चौथ पर सरगी की परंपरा कैसे शुरू हुई

सोशल संवाद / डेस्क : करवा चौथ के व्रत की शुरुआत सरगी से होती है और फिर पूरे दिन निर्जला व्रत रखते हैं। फिर शाम के समय चंद्रमा को देखते हुए व्रत पूरा होता है। करवा चौथ के व्रत में सरगी का विशेष महत्व है। व्रत में सेहत का ध्यान रखते हुए घर की बड़ी महिलाएं अपने आशीर्वाद के तौर पर व्रतियों को सेहतमंद भोजन करवाती हैं, उसी को सरगी कहा जाता है। आइए जानते हैं यह परंपरा कैसे शुरू हुई।

हर वर्ष हिन्दू माह के अनुसार कार्तिक माह के चतुर्थी को सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र की कामना हेतु करवा चौथ का व्रत रखती हैं। करवा चौथ के व्रत में कई तरह की परंपराओं का पालन किया जाता है, जिसकी शुरुआत सरगी खाने से होती है। सरगी खाने की परंपरा में घर के बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद शामिल होता है।

करवा चौथ के दिन सास अपनी बहुओं के लिए सरगी बनाती हैं और बहुएं इसे खाकर व्रत शुरू करती है। इसके साथ ही सास अपनी बहु को श्रृंगार का सामान भी भेंट करती हैं। सरगी की थाली में श्रृंगार का सामान ,फल ,मिठाई,सूखे मेवे और नारियल रखना बहुत ज़रूरी होता है ।

दरअसल सरगी बहु के लिए सास का प्रेम और आशीर्वाद होता है। सरगी खाने के बाद महिलाएं ऊर्जावान महसूस करती हैं और व्रत में कोई समस्या नहीं होती है। बहुओं के लिए सास द्वारा तैयार किया गया भोजन ही सरगी कहलाता है। सरगी को लेकर एक पौराणिक कथा है बताया जाता है माता पार्वती ने करवा चौथ का व्रत किया था। देवी पार्वती की कई सास नहीं थी इसलिए मायके से माता मैना ने ही माता पार्वती को सरगी दी थी। इसलिए विवाह के पहले वर्ष में मायके से सरगी देने की भी परंपरा रही है। जबकि एक अन्य कथा के अनुसार, जब द्रौपदी ने पांडवों के लिए करवा चौथ का व्रत रखा था तब इनकी सास माता कुंती ने सरगी दी थी। इस तरह मायका और ससुराल से सरगी की परंपरा शुरू हुई।

 

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