सोशल संवाद / डेस्क (लेखक- सिद्धार्थ प्रकाश ) : 2022 में, माधबी पुरी बुच को भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) की पहली महिला अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। अपने कार्यकाल में उन्होंने बाजार की पारदर्शिता और निवेशकों की सुरक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण सुधार लागू किए। लेकिन इन सुधारों के पीछे की हकीकत अब सवालों के घेरे में है। क्या यह वही ‘विकास मॉडल’ है जिस पर देश गर्व करता रहा है?
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FIR के प्रमुख बिंदु:
फरवरी 2025 में, मुंबई की एक अदालत ने एंटी-करप्शन ब्यूरो (ACB) को माधबी पुरी बुच और SEBI के पांच अन्य अधिकारियों के खिलाफ FIR दर्ज करने का आदेश दिया। आरोप है कि इन अधिकारियों ने बाजार में धांधली और कॉरपोरेट फ्रॉड को बढ़ावा देने के लिए नियमों के विपरीत एक कंपनी को सूचीबद्ध करने की अनुमति दी, जिससे निवेशकों को भारी नुकसान हुआ। यह सब ‘न्यू इंडिया’ के आर्थिक सुधारों का हिस्सा था या एक योजनाबद्ध हेरफेर?
महाराष्ट्र कोर्ट का रुख और SEBI की प्रतिक्रिया:
अदालत ने ACB को इस मामले की गहन जांच करने का निर्देश दिया। SEBI और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (BSE) ने इस फैसले पर असहमति जताई, दावा किया कि उन्हें अपनी सफाई देने का मौका नहीं मिला। SEBI ने इसे ‘तुच्छ और परेशान करने वाली याचिका’ करार दिया और इसे चुनौती देने की मंशा जाहिर की। सवाल उठता है – क्या पारदर्शिता और जवाबदेही सिर्फ आम जनता के लिए है?
प्रभाव और संभावित परिणाम:
इस FIR का असर देश की शीर्ष कॉरपोरेट कंपनियों पर भी पड़ सकता है। जिनमें प्रमुख रूप से गौतम अडानी और मुकेश अंबानी की कंपनियों समेत 200 से अधिक बड़ी कंपनियां शामिल हैं।
1.बढ़ती नियामकीय जांच: कंपनियों पर अधिक कड़ी निगरानी रखी जाएगी, जिससे उनके परिचालन पर असर पड़ सकता है।
2.बाजार में अस्थिरता: इस मामले के चलते वित्तीय बाजार में अनिश्चितता बढ़ेगी, जिससे संबंधित कंपनियों के शेयरों में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकता है।
3.निवेशकों का भरोसा: अगर नियामक संस्थानों पर विश्वास कम हुआ तो निवेशकों का भरोसा डगमगा सकता है।
4.कानूनी परिणाम: अगर जांच में कॉरपोरेट धोखाधड़ी या नियमों के उल्लंघन की पुष्टि होती है, तो कंपनियों को कड़े कानूनी परिणामों का सामना करना पड़ सकता है।
निष्कर्ष:
माधबी पुरी बुच और अन्य अधिकारियों के खिलाफ FIR भारतीय वित्तीय नियामक प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकती है। अगर यह जांच निष्पक्ष और पारदर्शी हुई तो यह देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव ला सकती है। लेकिन अगर यह भी सिर्फ एक दिखावटी कार्रवाई बनकर रह गई, तो हमें यह मान लेना चाहिए कि ‘गुजरात मॉडल’ और ‘अमृतकाल’ के नारों के पीछे सच्चाई कुछ और ही है।
क्या यह भारत के आर्थिक ढांचे को मजबूत करने का प्रयास है, या फिर ‘बड़ी मछलियों’ को बचाने के लिए एक और मोहरा तैयार किया जा रहा है? जवाब खोजने के लिए निगाहें इस जांच के निष्कर्षों पर टिकी रहेंगी।