सोशल संवाद / नई दिल्ली : बहुप्रतीक्षित केंद्रीय बजट 2025-26 पेश किया गया है, और उम्मीद के मुताबिक, यह वादों, महत्वाकांक्षी लक्ष्यों और आकर्षक शब्दजाल का एक चमकदार प्रदर्शन है, जो शायद सिर्फ शब्दों तक ही सीमित रहेगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक बार फिर आर्थिक जादूगर की भूमिका निभाई है, ऐसा बजट पेश करते हुए जो हर किसी को खुश करता दिखता है, लेकिन असली ज़रूरतों को नज़रअंदाज कर देता है।
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क्या है गायब? स्पष्टता, दृष्टिकोण और ज़मीनी हकीकत
बजट में ‘विकसित भारत’ और ‘सबका विकास’ जैसे बड़े दावे किए गए हैं, लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। सरकार का ‘विकसित भारत’ का सपना आम आदमी की ज़िंदगी से कटा हुआ लगता है। महंगाई लगातार घरेलू बचत को खत्म कर रही है, रोज़गार सृजन की रफ्तार सुस्त है, और निवेश प्रोत्साहन योजनाएं लालफीताशाही में उलझी हुई हैं।
कृषि, जिसे सरकार ने ‘प्रथम इंजन’ बताया है, के लिए ज़िला-स्तरीय सुधारों का वादा किया गया है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार गिरते फसल मूल्यों और बढ़ती लागत की समस्या का समाधान कैसे करेगी। किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को लेकर ठोस कानून की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन बदले में उन्हें ‘प्रधानमंत्री धन-धान्य कृषि योजना’ नाम की एक और चमकती हुई घोषणा मिली, जो शायद पिछली योजनाओं की तरह घोषणाओं तक ही सीमित रह जाएगी।
सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (MSME) क्षेत्र, जिसे ‘दूसरा इंजन’ कहा गया है, को ज़्यादा कर्ज़ देने की सुविधा दी गई है। लेकिन मौजूदा लोन डिफॉल्ट दर और ऊंची ब्याज दरों को देखते हुए, सवाल उठता है कि ये उपाय छोटे व्यवसायों को सशक्त बनाने के लिए हैं या उन्हें कर्ज़ के जाल में और फंसाने के लिए।
कुछ अच्छे कदम भी हैं
जहां आलोचना जायज़ है, वहीं कुछ सकारात्मक पहल भी देखने को मिली हैं। नई कर व्यवस्था के तहत टैक्स छूट की सीमा ₹12 लाख तक बढ़ाने का फैसला मध्यम वर्ग के लिए राहत लेकर आया है। ग्रामीण स्कूलों में ब्रॉडबैंड विस्तार और एआई रिसर्च सेंटरों की घोषणा एक सकारात्मक कदम है, बशर्ते ये योजनाएं सरकारी लालफीताशाही में फंसकर दम न तोड़ दें। मेडिकल सीटों की संख्या बढ़ाने और हर ज़िले में डे-केयर कैंसर सेंटर स्थापित करने की योजना भी स्वागत योग्य है।
हालांकि, ये छोटे सुधार उन व्यापक संरचनात्मक सुधारों की कमी को छुपा नहीं सकते, जो बेरोज़गारी, महंगाई और औद्योगिक ठहराव जैसी समस्याओं का समाधान कर सकते थे।
कटाक्ष भरी हकीकत: आर्थिक ‘जुमलानॉमिक्स’ का नया अध्याय
सच कहा जाए तो, 2025-26 का बजट एक रचनात्मक कहानी गढ़ने का नया प्रयास है। इसमें भारत को वैश्विक विकास का अगुआ दिखाया गया है, जबकि घरेलू समस्याओं को नज़रअंदाज किया गया है। वित्तीय घाटा घटाया जा रहा है, लेकिन किस कीमत पर? इसका बोझ अंततः करदाताओं और पहले से संघर्षरत मध्यम वर्ग पर ही पड़ेगा।
आर्थिक ‘अनुशासन’ नाम की आड़ में वास्तविक कल्याणकारी खर्चों में कटौती की जा रही है, जबकि कॉरपोरेट कर संरचनाओं को पहले की तरह ही बनाए रखा गया है। आत्मनिर्भरता, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे नारे फिर से गूंज रहे हैं, लेकिन उद्योग जगत अब भी उन ठोस नीतियों का इंतजार कर रहा है, जो इन नारों को हकीकत में बदल सकें।
भविष्य: आर्थिक विकास की दिशाहीन दौड़?
यदि सरकार इसी तरह ऊंचे-ऊंचे वादे करने और न्यूनतम क्रियान्वयन की नीति पर चलती रही, तो भारत की आर्थिक राह एक दिशाहीन एक्सप्रेसवे जैसी हो जाएगी। युवाओं को नौकरी के बजाय ‘स्किलिंग’ पर भाषण मिलते रहेंगे, किसान आत्मनिर्भरता की बात सुनते रहेंगे लेकिन गुज़ारा मुश्किल होता रहेगा, और मध्यम वर्ग को टैक्स छूट का झुनझुना दिखाकर ज़रूरी सेवाओं के लिए ज़्यादा भुगतान करने पर मजबूर किया जाएगा।
इस बजट की समीक्षा करते हुए एक बात साफ़ है—यह एक भव्य आर्थिक छलावा है। वित्त मंत्री ने एक ऐसा बजट पेश किया है, जो चर्चा के लिए बहुत कुछ देता है, लेकिन भरोसा करने लायक कुछ भी नहीं।