November 9, 2024 11:29 am
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सुरक्षा को होता संदेह, मानकों से खेलता आवेग

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सोशल संवाद/डेस्क : वर्तमान अपाधापी में लोग जहां अशांत व बैचेन जिंदगी जी रहे है वही वो सामाजिक सुरक्षा को लेकर संदेह भी रखते है। कौन जाने कब लोग किसके आवेगों का शिकार हो जाए। समाज में घट रही नित्य की घटनाएं इस बात का सबूत देती है कि लोगों में निराशा व असफलता से फलीभूत आक्रामकता कूट – कूट कर भरी है। बस इंतज़ार है तो मौके की कहां किसे अपने आवेगों का, क्रोध शमन का बलि का बकरा बनाएं। कहां वो वैसा कोई कमज़ोर लोग या घर – परिवार मिले कि कहीं का गुस्सा कहीं निकाले और मन में उद्वेलित आवेंगों पर नियंत्रण पाएं। ऐसे में घटित घटनाओं के प्रति लोग संवेदना जताने को नाना प्रकार के लोग मिलेंगे और सहानुभूति भी दिखाएंगे मगर वास्तविक कारणों को जड़ से उखाड़ फेंकने की बात नहीं दुहराएंगे। क्यों ऐसा हो रहा है तनिक बातों से घर, परिवार, मुहल्ला को नहीं घेरेंगे।

बस पुलिस बुलाकर अपना फर्ज़ निभा देंगे। फिर पक्ष – विपक्ष में होकर फ्री का संदेश, उपदेश, सुझाव आदि बाटेंगे चाहें वर्तमान समस्या से उसका कोई वास्ता रहे या न रहे। आधुनिक मनौवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने कहा कि ‘ टेल मी व्हाट अदर्स आर, आई वील टेल यू व्हाट यू आर ‘ अर्थात दूसरों के बारे में बताए कि वो क्या है, मैं बता दूंगा कि आप क्या है। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे लोग जो अपनी बातों को, कमियों को दूसरों पर प्रक्षेपित कर शरीफ व अकलमंद बनने की जो कोशिश होती है समाज में ऐसे मूर्ख बनाने वाले लोगों की नियति, विचार, मनोवृत्ति, भूमिका, आदि को समझने व तदनुरूप व्यवहार करने की जरूरत है। दुर्भाग्य यह है कि लोग अपनी समझदारी बढ़ाने व गुरुज्ञान देने के चक्कर मानकों पर खड़ा उतर बातें व व्यवहार करना या तो भूल जाते हैं या अपनी अचेतन इरादों की इच्छापूर्ति में बातों को नजरंदाज कर चलते है। परिणाम होता है जिस बात व व्यवहार को सामाजिक मानकों के तहत घटित होना चाहिए, नैतिकता के सीमा में होना चाहिए वहां क्षणिक लाभ का प्रलोभन में पड़ कर लोग मर्यादाओं की सीमा लांघ जाते है।

यह बात कितना हास्यास्पद लगता है कि एक ओर देश जहां विश्वगुरू बनने को परिकल्पित है। कटिबद्ध है। प्रयासरत है तो वही दूसरी ओर दोषपूर्ण समाजीकरण व अस्वास्थ्यकर सामाजिक व राजनैतिक वातावरण कहीं न – कहीं एक दूसरे में सामाजिक समरसता , प्रेम, मित्रता, विश्वास व भाईचारा के जगह सामाजिक दुराव, विषमता , नफरत आदि का ज़हर घोलता है जहां सच्चाई के साथ खड़े रहने के बजाय जाति, धर्म, संप्रदाय में बंट चीजों को देखने लग जाते है। विडंबना कहे कि जिस बाल , किशोर व युवा मानसिकता का पालन पोषण पूर्वाग्रह व रूढ़िगत भावना से दूर होना चाहिए वहां वो संज्ञानात्मक रूप से भ्रमित दिखते है। आत्मविश्वास के साथ न कोई बात रख पाते है न ही सही निर्णय ले पाते है सिवाय दूसरों के इशारे पर नाचने के।

एक तरह से कहे तो उन्हें जहां अच्छे संस्कारों व मानकों के सांचे में ढल चलने व निखरने के लिए यथार्थ व पर्याप्त मात्रा में परामर्श की कमी है, सार्थक मार्गदर्शन की कमी है जो न तो उसे घर,स्कूल, कॉलेज से मिल रहा है और न ही दोस्त, संस्थान आदि से ही मिला तो वहीं वो सामाजिक अनुकरण का शिकार हो विभत्स घटनाओं को अंजाम देते है। समाज में विचलनशीलता इस कदर है कि चोरी, लूट, शोषण आदि से लेकर समाज में जघन्य हत्या व बलात्कार होता है। अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म होता है। तो कहीं लोगों को जिंदा जला दिया जाता है। मानवता को शर्मसार करने घटना एक नहीं अनेकों है। आखिर ऐसा क्यों? आने वाले विकसित भारत या अच्छे दिन का ये कैसा संकेत है। मनौवैज्ञानिक नजरियें से कहे तो ये असफलता, असंतोष व विषमता का वो कारण जो लोगों में आक्रोश को जन्म दे रहा है।

जहां वो अपनी कमियों कमियों, परेशानियों आदि को खुल कर किसी से कह नही पाता है। मन ही मन घूंटता है। ऐसे में वो अपनी संवेगिक भावना का विरेचन कहां करे व किससे करे यह एक मुश्किल भरा यक्ष प्रश्न होता है। ऐसे में लोग अपने उन आवेगों को दवाएं रखता है , छुपाए रहता है इस उम्मीद में कि जैसे ही मौका मिलेगा वो तुरंत अपनी दमित भावना को प्रस्फुटित करे । उसका उत्सर्जन करे देंगे । जहां व्यक्ति का इड (पाशविक प्रवृत्ति) कमज़ोर मानकों से फायदा उठाने के लिए व्यक्ति को प्रोत्साहित भी करता रहता है। ऐसे में कौन- सा मानकविहीन व्यवहार कब , कहां और कैसे घटित होगा कोई नहीं जानता है सिवाय परिस्थितियों के। यकीनन यहीं वो कारण है जहां अप्रत्याशित व अवांछित व्यवहारों के घटित होने का बादल समाज में लिए समाज विरोधी व नकारात्मक मानसिकता घूमती रहती है। मौका के फिराक में होता है कि कब सुरक्षा में सेंध मारे।

कब खातिर स्वार्थपूर्ति में मर्यादाओं की सीमा लांघ जाए। समाज में घट रही घटनाओं पर विश्लेषात्मक दृष्टि डाले तो बातें और भी स्पष्ट तौर पर जाहिर होता है कि लोग एक दूसरे से गले अवश्य मिलते है, हाथ भी मिलाते है मगर खुशी मन से नहीं। लोगों के दिलोदिमाग में ये पाशविक प्रवृत्तियां घर कर गई कि उन्हें हर बात में फायदा होना चाहिए। इस कारण वो हर रिश्ते में, काम में अपनी स्वार्थ, लाभ , मुनाफे आदि की सोचते है। बदले कुछ काम के,एहसान के क्या कुछ मिले, कैसे ले आदि भावनाए दिमाग से जा कौंधती रहती है। जिसके चाहत में सनकी वो बनते है , दीवाना बनते है, तो कहीं असफलता को दूर करने को, अपनी हीनता की क्षतिपूर्ति को वो अपने को अवेगी बनाते है। मौके की ताक में जुट जाते है। और ऐसी दुर्भावना के संरक्षण, पल्लवन व विरेचन में आज की सामाजिक मिडिया में कम सहायक साबित नहीं होता है। आज बच्चे , किशोर हो या वयस्क सभी सेंटीमेंटल के तार पर बिखड़े नजर दिखते है।

बात उसके मुताबिक बनी नहीं कि कुछ भी अनर्थ करने को उग्र हो जाते है। एब्नॉर्मल प्रदर्शन करने लगते है। जान जोखिम में डालने की जिद्द करते है। इमोशनल ब्लैक मेल करते है। मानों ऐसे लोगों में जीवन के जगह मृत्यु मूल प्रवृत्तियां ज्यादा घर कर लिया हो जहां बात – बात में एक दूसरे को जान से मारने को आमदा हो जाते है। ऐसे में मानवीय सुरक्षा हमेशा संदेह के घेरे में रहेगी अगर संवेगों या अवेगों का विरेचन का उचित अवसर न दिया जाय। उस पर नियंत्रण का पहरा न बिठाया जाय। ऐसी घटनाओं के पीछे बहुत से समाज मनोवैज्ञानिक कारक होते है जहां उन बातों अनदेखी या उपेक्षा होती है जिसका परिणाम होता है कि समाज में हत्या या आत्महत्या का घटनाएं बढ़ रही है तो वही तरह – तरह की अपराध भावना का बीजारोपण भी करती है। ऐसे में लोगो का रक्षा प्रक्रमों का व्यवहार कर बच निकलने या भाग्य को कोसने या भ्रष्ट व्यवस्था का परिणाम आदि कह बच निकलने का न होकर विचारों व मनोवृत्तियों में सकारात्मक बदलाव लाने की जरूरत है। मन में पनपते उस अपराध भावना को घाव के मवाद की तरह निचोड़ कर बाहर निकलने की समेकित प्रयास होनी चाहिए न कि कुंठित आवेगों को अपराध करने को बेलगाम छोड़ देना चाहिए ।

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