आखिर क्या है लंका दहन की कहानी , जाने पूरी कथा

सोशल संवाद / डेस्क :   लंका दहन की कहानी हिन्दू पौराणिक कथा रामायण के समय की है, जब भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर इंसानों को लंकापति रावण नाम के राक्षस के आतंक से बचाने के लिए श्रीराम के रूप में अवतार लिया। इस युग में भगवान श्रीराम ने अयोध्या के राजा दशरथ जी के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में जन्म लिया। भगवान विष्णु के इस अवतार की कहानी को रामायण के 7 अध्याय में बताया गया है। उनमें से एक कांड है युद्ध कांड, इस कांड को लंका कांड भी कहा जाता है। लंका दहन की कहानी इसी कांड में दर्शाई गई है ।

भगवान राम अपनी पत्नी सीता और अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वन में जीवन व्यतीत कर रहे थे, तभी लंकापति रावण ने उनकी पत्नी सीता का हरण कर लिया। भगवान राम और उनके भाई लक्ष्मण माता सीता की खोज के लिए दर – दर भटक रहे थे, तब उनकी मुलाकात भगवान शिव के वानर अवतार हनुमान जी से हुई। और उसके बाद सुग्रीव और बाकियों से भी। सब मिलके माता सीता को धुंडने में लग गए । और फिर उन्हें पता चला की रावण उन्हें लेकर लंका चला गया है ।

तब श्रीराम ने हनुमान को अपनी एक अंगूठी देते हुए कहा कि – हनुमान यह अंगूठी सीता को दे देना और उनसे कहना कि वे जल्द ही लंका पहुँच जायेंगे और उन्हें रावण के बंधन से मुक्त करा देंगे। यह कहकर श्रीराम ने हनुमान जी को लंका जाने की आज्ञा दी, और वे लंका की ओर चल दिए। इसी बीच उन्हें तीन राक्षसियों का भी सामना करना पड़ा जिन्हें जिनका वध करके  वे लंका पहुँच गए। हनुमान जी लंका पहुँच कर माता सीता की तलाश करने लगे और तलाश करते – करते वे अशोक वाटिका पहुंचे, वहाँ उन्होंने देखा की माता सीता एक पेड़ के नीचे बैठी श्रीराम से मिलने के लिए दुखी हैं। यह देख कर हनुमान जी माता सीता के पास गए और उन्हें श्रीराम के बारे में बताया। प्रभु श्रीराम के बारे में बताते हुए उन्होंने माता सीता को श्रीराम की अंगूठी दी और कहा – श्रीराम आपको यहाँ से मुक्त कराने जल्द ही आयेंगे। तब माता सीता ने अपना जुड़ामणि हनुमान जी को देते हुए कहा कि – ‘यह श्रीराम को दे देना और उनसे कहना कि उनकी सीता उनकी प्रतीक्षा कर रही है।’

यह सब होने के बाद हनुमान जी ने माता सीता से कहा कि – मुझे बहुत भूख लगी है क्या मैं इस वाटिका में लगे फल खा सकता हूँ? तब माता सीता ने उन्हें आज्ञा दी। वे एक पेड़ से दुसरे पेड़ कूदते हुए फल खाने लगे और कुछ पेड़ गिरा दिए। और इस तरह उन्होंने पूरी अशोक वाटिका उजाड़ दी।   जब ये खबर रावण तक पहुची। तो रावण ने मेघनाद के पुत्र अक्षय कुमार को उन्हें मारने के लिए भेजता है  है लेकिन हनुमानजी उसका वध कर देते हैं। यह खबर लगते ही लंका में हाहाकार मच जाता है तब स्वयं मेघनाद ही हनुमानजी को पकड़ने के लिए आता है।
मेघनाद हनुमानजी पर कई तरह के अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करता है लेकिन उससे कुछ नहीं होता है। तब अंत में मेघनाद ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता है। तब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। तब हनुमानजी मेघनाद के ब्रह्मास्त्र का सम्मान रखकर वृक्ष से गिर पड़ते हैं। फिर मेघनाद उन्हें नागपाश में बांधकर रावण की सभा में ले जाता है। हनुमान को सभा में लाने के बाद उनकी मुलाकात रावण से हुई। रावण को देखकर हनुमान ने उसे बहुत ही अपशब्द कहें और वे हँस पड़े। यह देखकर रावण को गुस्सा आया और उसने हनुमान से कहा कि – तुम कौन हो, तुम्हेँ अपनी मृत्यु से डर नहीं लगता और तुझे यहाँ किसने भेजा है? तब हनुमान जी ने उससे कहा मुझे उन्होंने भेजा है, जो इस सृष्टि के पालन कर्ता हैं, जिन्होंने शिवजी के महान धनुष को तोड़ा, जिन्होंने बालि जैसे महान योद्धा का वध किया और जिनकी पत्नी का तुमने छल पूर्वक हरण किया है।

हनुमान जी ने रावण से कहा कि तुम प्रभु श्रीराम से क्षमा मांग लो, उनकी पत्नी माता सीता को सम्मान के साथ वापस कर दो और लंका पर शांति से राज्य करो।

हर तरह से हनुमानजी रावण को शिक्षा देते हैं लेकिन रावण कहता है- रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है। मुझे शिक्षा देने चला है। हनुमानजी ने कहा- यह तेरा मतिभ्रम है, मैंने प्रत्यक्ष जान लिया है। यह सुनकर रावण और कुपित हो जाता है और कहता है- बंदर की ममता पूंछ पर होती है अत: तेल में कपड़ा डुबोकर इसकी पूंछ में बांधकर फिर आग लगा दो। तब हनुमानजी को पकड़कर सभी राक्षस उनकी पूंछ को कपड़े से लपेटने लगते हैं। हनुमानजी अपनी पूंछ को बढ़ाना प्रारंभ करते हैं तो सभी देखते रह जाते हैं। पूंछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि नगर में कपड़ा, घी और तेल बचा ही नहीं । हनुमानजी की  पूंछ इतनी बढ़ गई। नगरवासी भी  तमाशा देखने आ आए।

अंत में उनकी पूंछ में आग दी गई तब बंधन से निकलकर हनुमानजी सोने की अटारियों पर जा चढ़े। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियां भयभीत हो गईं। उस समय भगवान की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। तब वे अपनी जलती हुई पूंछ से दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़कर उनमें आग लगाने लगे। देखते ही देखते पूरा नगर जलने लगा और चारों ओर अफरा-तफरी मच गयी।
धीरे धीरे उन्होंने पूरी लंका को आग लगा दी।  सिर्फ एक विभिषण का महल छोड़ कर उन्होंने पूरी लंका को जला डाला। जिससे पूरा नगर जल कर राख हो गया। फिर उन्होंने समुद्र में जा अपनी पूँछ की आग बुझाई और वापस लौट गए। इस तरह लंका दहन की कहानी समाप्त हो गई। हनुमान जी को वरदान था की आग उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती इसलिए उनकी पूंछ को कोई हानि नहीं पहुंची ।

रावण की लंका के दहन के पीछे एक और कथा भी है जिसके बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते हैं। इस  कथा के अनुसार, देवी पार्वती ने लंका नगरी को जलने का श्राप दिया था। इस वजह से ही पूरी की पूरी सोने की लंका जल गयी ।

 

 

 

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