सोशल संवाद/ डेस्क : आज विश्वनाथ प्रताप सिंह की याद आ रही है। इसलिए नहीं कि वो कोई महान प्रतापी राजा अथवा प्रधानमंत्री थे। वीपी इसलिए याद आ रहे हैं, क्योंकि उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का काम किया था। उसके बाद देश में क्या हुआ था, यह बताने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती। याद आज लालू प्रसाद यादव की भी आ रही है। लालू ने सामाजिक न्याय के बहाने जितने भी पिछड़े थे, उनको जुबान दे दी। जो लोग कभी सामंतशाही के आगे नतमस्तक थे, उन्होंने सामंतशाहियों के सामने सीना तान दिया और गर्दन ऊंची कर दी। एक दौर वह भी याद आता है जब बिहार और यूपी में यादव जी लोग ही थानेदार होते थे। एक दौर वह भी स्मृति पटल पर तारी है, जब तमाम अगड़े ही थानों के प्रभारी होते थे। चाहे वो लाला हों, राजपूत हों, भूमिहार हों या पंडित जी लोग हों।
फिर, वह दौर भी याद आ रहा है, जब नीतीश-लालू-तेजस्वी की तिकड़ी ने तमाम रोक-टोक के बावजूद, भाजपा की सहमति से बिहार में जाति आधारित गणना भी करवा ही दी। इस जाति आधारित गणना के साइड इफेक्ट अभी से दिखने लगे हैं।
अभी फेसबुक देख रहा था। एक जन प्रतिनिधि के वॉल पर एक खबर टंगी हुई थी। उस खबर की प्रतिक्रिया बेहद गंभीर थी। दो वर्ग बन गये थे प्रतिक्रिया देने वालों के। एक वर्ग वह था, जिसे वीपी सिंह, लालू और नीतीश ने मजबूत किया, उनके लिए ज्यादा काम किया। अर्थात पिछड़ों का वर्ग। एक वर्ग वह था, जो आम तौर पर अगड़ा, सामंती या फिर सवर्ण कहा जाता है। पिछड़ों ने एक से बढ़ कर एक नकारात्मक कमेंट कर रखे थे। पूरा वॉल उनके ही कमेंट से अटा पड़ा था। उनके जवाब में सवर्णों की प्रतिक्रिया नगण्य थी। तथाकिथत पिछड़ों ने कमेंट में लोकल का मुद्दा उठा रखा था।
वो एक पार्टी विशेष के फवर से ज्यादा उम्मीदवार विशेष का जिक्र कर रहे थे, नारेबाजी कर रहे थे और कई स्थानों पर शब्दों की मर्यादा की धज्जियां भी उड़ा रहे थे। सवर्ण खामोश। यादों की इस श्रृंखला में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कैसे छूट सकते हैं। वह भी याद आये। उनके कृतित्व की सबसे बड़ी निशानी है एक साथ कई पिछड़ों को अपने मंत्रिमंडल में जगह देना और संसद में खुद को पिछड़ा घोषित करना। अगड़े और पिछड़े के अभी के इस कमेंटबाजी को मैं इसलिए गंभीरता से इसलिए ले रहा हूं ताकि कल इस स्वरूप विद्रूप न हो जाए।
यह सही है कि पिछड़ों को और ताकत देने की जरूरत है लेकिन यह भी उतना ही सही है कि हर अगड़ा बहुत ताकतवर नहीं है। हम जब ताकत दें तो बहुत ही नीर-क्षीर-विवेक के तरीके से सोचना होगा कि किसे क्या और कितनी ताकत देनी है। ताकत देने के क्रम में हमें भस्मासुर की कथा को भी याद करना होगा और यह भी कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में समाज के हर हिस्से में ज्वलनशील पदार्थ इकट्ठे हैं। माचिस की एक तिल्ली ही आग लगाने के लिए पर्याप्त है। इसलिए, इस तथ्य को और गंभीरता से समझने की जरूरत है कि जाति के आधार पर, अगड़ा-पिछड़ा के आधार पर अगर हम राजनीति करते रहेंगे तो एक दिन उसका शिकार हम खुद भी हो जाएंगे।