सोशल संवाद डेस्क / रिपोर्ट : तमिश्री –अंबाजी माता मंदिर भारत के सबसे प्राचीन और प्रमुख धार्मिक स्थलों में जाना जाता है। आपको बता दें, माता सती का अरावली पर्वत श्रृंखला पर स्थित अरसुरी पहाड़ी पर उदर जा गिरा था, वही आज ये मंदिर स्थापित है।
देखें video : अम्बाजी शक्तिपीठ : यहाँ गिरा था माता सती का उदर
ये मंदिर मां दुर्गा के 51 शक्तिपीठों में शामिल है। हर साल हजारों की संख्या में श्रद्धालु माता के दर्शन करने के लिए अंबाजी मंदिर आते हैं। खास रूप से यहां, भद्रवी पूर्णिमा, नवरात्रि और दिवाली के दिनों में भक्तों की सबसे ज्यादा भीड़ देखने को मिलती है। ये जगह जंगलों से घिरे रहने की वजह से श्रद्धालुओं को आध्यात्मिकता के साथ-साथ प्राकृतिक नजारों का भी एक अच्छा खासा मिश्रण पेश करती है। अम्बाजी शक्ति पीठ को ‘अरासुरी अम्बाजी मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है। यह सांस्कृतिक विरासत स्थलों के साथ अपने ऐतिहासिक और पौराणिक संबंधों के लिए जाना जाता है।
अंबाजी का मंदिर इसलिए भी अनोखा माना जाता है, क्योंकि यहां देवी की एक भी मूर्ती नहीं है। मूर्ती के बजाए यहां एक बेहद ही पवित्र श्री यंत्र है, जिसकी मुख्य रूप से पूजा की जाती है। लेकिन, खास बात ये है कि श्री यंत्र को सामान्य आंखों से देख पाना मुश्किल है और न ही आप यहां फोटो खींच सकते है । इसकी पूजा भक्त आंखों पर पट्टी बाधंकर करते हैं। यंत्र को इस प्रकार से मुकुट एवं चुनरी से श्रृंगारित किया जाता है कि सवारी पर आरुढ़ माताजी की मूर्ति होने का आभास होता है। यंत्र शुद्ध स्वर्ण से निर्मित है प्रतिदिन माताजी को विभिन्न वाहनों-सिंह, बाघ, हाथी, नंदी, एरावत, गरुड़, हंस पर आरुढ़ किया जाता है। माताजी के यंत्र स्थान को नजर से देखना निषेध होने से पुजारी भी आंखों पर पट्टी बांध कर यंत्र की पूजा करते हैं।
पिछले150 वर्षों से सिद्धपुर के मानस गौत्र के ब्राह्मण वीसा यंत्र की पूजा करते हैं। यहां अखंड ज्योत जलती है। माताजी की पूजा भी हर वार को अलग प्रकार से होती है। रविवार को वाघ पर सवार होती दिखाई देती हैं। सोमवार को नंदी पर, मंगलवार को शेर पर, बुधवार को ऐरावत पर, गुरुवार को गरुड़ पर, शुक्रवार को हंस पर एवं शनिवार को हाथी पर सवारी करते हुए दृश्यमान दिखाई देती हैं।
ऐसा माना जाता है कि यह मंदिर बारह सौ साल से भी ज्यादा पुराना है और इस मंदिर का निर्माण चौथी शताब्दी में वल्लभभाई शासक सूर्यवंश सम्राट अरुण सेन ने करवाया था। इस मंदिर का पुनर्निर्माण राज्य सरकार द्वारा कराया गया है। मंदिर के पुनर्निर्माण में भी सोने का उपयोग किया गया है। मंदिर के शिखर पर 358 स्वर्ण कलश स्थापित हैं। अम्बाजी का मुख्य शक्तिपीठ कस्बे में स्थित गब्बर पर्वत पर स्थित है। जहां श्रद्धालु 111 सीढ़ियां चढ़कर मंदिर तक पहुंचते हैं। इस स्थान पर हर वर्ष भाद्रवी पूर्णिमा पर बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। इस दिन मंदिर को दिवाली की तरह सजाया जाता है।
मंदिर सफेद संगमरमर से बना है जिसमें सोने के शंकु हैं। प्रवेश करने के लिए एक मुख्य द्वार और बगल में एक और छोटा दरवाजा है। मंदिर के गर्भगृह को चांदी के दरवाजों से सुशोभित किया गया है। कक्ष के अंदर एक गोख, या आला है, जिसे दीवार में लगाया गया है, जिस पर पूजा करने के लिए पवित्र ज्यामितीय वस्तु, श्री यंत्र स्थापित है। मंदिर के अंदर मूर्ति की अनुपस्थिति इस बात की ओर इशारा करती है कि ये मंदिर प्राचीन समय से है जब भारत में मूर्ति पूजा प्रचलित नहीं थी। लेकिन फिर भी, यहां के पुजारी गोख के ऊपरी क्षेत्र को इस तरह से सजाते हैं कि ये इसे कोई भी देवता की छवि के रूप में देख सकता है।
अंबाजी मंदिर से थोड़ी दूरी पर एक चौड़ा कुंड है, जिसे मानसरोवर के नाम से जाना जाता है। यहां डुबकी लगाना बेहद पवित्र माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया, जिसमें अपने दामाद भगवान महादेव को निमंत्रण नहीं दिया। इसकी जानकारी सती (पार्वती) को होने से उन्होंने यज्ञ में जाने का आग्रह किया और महादेव के विरोध के बावजूद यज्ञ में पहुंची, जहां हुए अपमान से दु:खी सती यज्ञ कुंड में कूद गईं। भगवान शिव को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने सती के देह को यज्ञ कुंड से निकालकर कंधे पर रखा और तांडव करने लगे। भगवान विष्णु ने सृष्टि के विनाश की आशंका के चलते सुदर्शन चक्र छोड़ा, जिससे सती के शरीर के टुकड़े हो गए और जिन स्थलों पर सती के शरीर के टुकड़े एवं अंगों पर धारण आभूषण गिरे उन 51 स्थानों पर शक्ति पीठ का निर्माण हुआ।
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