धर्म

आखिर कैसे बार्बरिक बने खाटू श्याम , जाने पूरी कहानी

सोशल संवाद / डेस्क :  महाभारत के युद्ध में कई जाबाज़ योधाओं ने भाग लिया था। अर्जुन, अश्वथामा, भीष्म पितामा इत्यादि बहुत ही कुशल योद्धा हुआ करते थे। परंतु इस धर्मयुद्ध में एक शक्तिशाली  योद्धा ऐसा भी था जिसे युद्ध में भाग लेने ही नहीं दिया गया । इसका कारण ये था कि इस योद्धा में इतनी शक्ति थी, इतना जूनून था कि ये एक तीर से पूरा का पूरा युद्ध समाप्त कर सकता था । जी हा , इस योद्धा का नाम था बर्बरीक।

कौन थे बर्बरीक

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बर्बरीक असल में भीम के पुत्र घटोत्कच के पुत्र थे। बर्बरीक को आरंभ से ही धनुष विद्या में रूचि थी। उन्होंने युद्ध-कला अपनी माता से सीखी। माँ आदिशक्ति की तपस्या कर उन्होंने उनसे त्रिलोकों को जीतने में सक्षम धनुष प्राप्त किया साथ ही असीमित शक्तियों को भी अर्जित कर लिया तत्पश्चात् अपने गुरु श्रीकृष्ण की आज्ञा से उन्होंने कई वर्षों तक महादेव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और भगवान शिव से तीन अभेद्य बाण प्राप्त किए और ‘तीन बाणधारी’ का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया।

महाभारत युद्ध के समय, बर्बरीक को भी युद्ध में शामिल होने की इच्छा हुई। जब वे अपनी माता से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया।

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भगवान श्रीकृष्ण का जब हुई चिंता

महाभारत के युद्ध के समय , भगवान श्रीकृष्ण को बर्बरीक के दोनों पक्षों की ओर से युद्ध करने का वचन चिंतित कर रहा था ।  वचन के अनुसार बर्बरीक हारने वाले पक्ष की तरफ से लड़ने लग जाते। श्री कृष्ण समझ गए कि ऐसे तो महाभारत का युद्ध कभी समाप्त नहीं होगा।  फिर उन्होंने , भेष बदल बर्बरीक से मुलाकात की। और यह जानकर उनकी हँसी भी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तरकस में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा।

इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें चुनौती दी कि इस पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेदकर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और श्रीकृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए वरना ये आपके पैर को चोट पहुँचा देगा। श्रीकृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराया कि वह युद्ध में उस ओर से भाग लेगा जिस ओर की सेना निर्बल हो और हार की ओर अग्रसर हो।

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श्रीकृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा। ब्राह्मण वेश में श्रीकृष्ण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। श्रीकृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिए चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और श्रीकृष्ण के बारे में सुनकर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।

उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीरवर क्षत्रिए के शीश के दान की आवश्यकता होती है, उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतएव उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी बहस होने लगी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्रीकृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था। यह सुनकर श्री कृष्ण ने बर्बरीक को वर दिया और कहा कि तुम मेरे श्याम नाम से पूजे जाओगे खाटू नामक ग्राम में प्रकट होने के कारण खाटू श्याम के नाम से प्रसिद्धि पाओगे और मेरी सभी सोलह कलाएं तुम्हारे शीश में स्थापित होंगी और तुम मेरे ही प्रतिरूप बनकर पूजे जाओगे।

युद्ध समाप्ति के बाद उनका शीश खाटू नगर में दफनाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है, कलयुग में एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दूध की धारा बहाती थी। लोगों ने यहां खुदाई कि तो एक शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण के पास रखा गया। फिर एक  बार खाटू नगर के राजा को सपना हुआ कि यहां एक मंदिर बनना चाहिए और खाटूश्याम के सिर को यहां स्थान देना चाहिए।  उसके बाद यहां पर एक छोटे से मंदिर में भगवान खाटूश्याम विराजमान हुए। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर 1720  ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।

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