सोशल संवाद / डेस्क : झारखंड एक रीती-रिवाज और पारंपरिक चीज़ो से जाने जानेवाला राज्य है, यहां जनजातीय परंपराओं के साथ संस्कृति और प्रकृति का अनोखा संगम है। हालाँकि, धीरे-धीरे झारखंड की परंपरा और रीति रिवाज खोते जा रहे है, और इसका मुख्य कारण है आधुनिकीकरण, लोग अब मशीनो के तरफ ज्यादा आकर्षित हो रहे है। इसके बावजूद आज भी झारखंड में कुछ ग्रामीण इलाके है जहां, लोग अपनी परंपरा के साथ आगे बढ़ रहे है। ढेंकी भी झारखंड की परंपरा से जुड़ा एक यंत्र है।

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ढेंकी लकड़ी से बना हुआ एक यंत्र है जिसे ग्रामीण इलाके के लोग खुद अपने हाथों से इसे बनाते है। एक लंबी कठोर लकड़ी से बनी ढेंकी जिसके अगले सिरे पर एक लकड़ी का छोटा टुकड़ा लगा होता है और यह वजन में भी काफी भारी होता है। आमतौर पर इसका इस्तेमाल भारत में पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा, असम, बिहार और छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में किया जाता है।

ढेंकी का इस्तेमाल मुख्य रूप से चावल कूटने के लिए किया जाता है और इसे आमतौर पर महिलाएं ही चावल कूटने के लिए उपयोग करती है। इसके पिछले सिरे को पैर से दबा कर अगले सिरे में जमीन पर एक छोटा सा गड्ढा कर के उसमें चावल भरा जाता ह। इसके पिछले हिस्से को लगातार पैरों से दबाया जाता है और जब चावल की बालियों में भार के कारण बल पड़ता है तो चावल का आटा तैयार होता है, जिससे तरह-तरह के पकवान बनाये जाते हैं. ढेंकी का इस्तेमाल गेंहू, मक्का, दलहन, आदि अनाजों को कूटने के लिए भी होता है।
आज के ज़माने में जहां आधुनिकीकरण के दौर में लोग मशीनों की तरफ आकर्षित हो चुके है इसी कारण अब ज्यादातर गांवों में केवल पर्व-त्योहार, शादी, जन्म या मृत्यु से संबंधित समारोह में ही पारंपरिक रीति-रिवाजों को निभाने के लिए ढेंकी का उपयोग होता है। पहले के ज़माने में गांव के हर घरों में ढेंकी रहती थी, और सुबह से ही ढेंकी की ढक-ढक की आवाज गूंजती रहती थी।








