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मृतकों का पर्व: एक दिन जब दीप जलते हैं, और स्मृतियाँ बोल उठती हैं

By Tamishree Mukherjee

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मृतकों का पर्व

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सोशल संवाद / डेस्क : 2 नवम्बर को ईसाई समुदाय सर्व आत्माओं का दिवस या मृतकों का पर्व मनाता है । एक ऐसा दिन जब विश्वास, स्मृति और प्रेम एक साथ जल उठते हैं। जैसे ही सांझ ढलती है, कब्रिस्तान और घरों में दीपों की रोशनी टिमटिमाने लगती है। परिवार फूल लेकर आते हैं, बच्चे मोमबत्तियाँ संभालते हैं, और वातावरण में स्मरण की नमी घुल जाती है। हर लौ जैसे यह संदेश देती है — प्रेम मृत्यु से समाप्त नहीं होता।

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यह पर्व केवल ईसाई विश्वास का हिस्सा नहीं, बल्कि मानवता की उस गहरी चाह को भी दर्शाता है जो अपने प्रियजनों से आत्मिक रूप से जुड़े रहने की आकांक्षा रखती है। दीप जलाना यहाँ मात्र एक कर्मकांड नहीं, बल्कि प्रेम का प्रतीक है  जो जीवन और मृत्यु की सीमाओं को मिटा देता है।

भारत में यह भावना अनेक परंपराओं में झलकती है। हिन्दू परिवार पितृपक्ष के दौरान अपने पूर्वजों को अन्न, जल और प्रार्थना अर्पित करते हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए। इस्लामी परंपरा में परिवारजन सूरह फातिहा का पाठ कर दिवंगत आत्माओं के लिए शांति और रहमत की दुआ करते हैं।
अनेक आदिवासी समुदायों में भी पूर्वजों की स्मृति त्योहारों में जीवित रहती है जहाँ उन्हें रक्षक और मार्गदर्शक के रूप में आमंत्रित किया जाता है। कहीं दीपक जलाए जाते हैं, कहीं कंदील बहाई जाती है  पर संदेश एक ही होता है: प्रेम समय और मृत्यु दोनों से परे है।

स्मरण: दुख नहीं, कृतज्ञता का भाव

मृतकों का पर्व हमें केवल पीछे मुड़कर दुखी होने के लिए नहीं, बल्कि भीतर झांककर कृतज्ञ होने के लिए बुलाता है। स्मरण अपने आप में प्रेम का कार्य है। हमारे हाथों की वह लौ नाजुक होते हुए भी अर्थपूर्ण है।
यह निष्ठा का प्रतीक है जो भुलाए जाने से इंकार करती है। यह सिखाती है कि जीवन भले बीत जाए, पर प्रेम शाश्वत रहता है।

पर यही दिन हमें आत्ममंथन के लिए भी आमंत्रित करता है  क्या हम अपने जीवित प्रियजनों को भी वही स्नेह देते हैं, जो मृत्यु के बाद देते हैं? कितनी बार वृद्ध माता-पिता अकेले रह जाते हैं, बीमारों की सुध नहीं ली जाती, और जिन्होंने हमें सब कुछ दिया वे अपने अंतिम वर्षों में एक स्पर्श या मुस्कान के लिए तरसते हैं।

जो प्रेम हम मृत्यु के बाद दिखाते हैं, उसे जीवन में ही व्यक्त करना होगा।
जो संवेदना कब्र के पास दिखती है, वही बिस्तर के पास भी होनी चाहिए।
जो दीप मृतकों के लिए जलता है, वही करुणा जीवितों के लिए भी जलनी चाहिए।

सच्चा स्मरण वही है जो छोटे-छोटे कर्मों में झलके किसी बुज़ुर्ग को फोन करना, किसी बीमार का हाल पूछना, किसी अकेले के पास बैठना। यही मृतकों का पर्व हमें सिखाता है कि “याद केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी भी है।”

प्रेम और आशा का प्रतीक

इस दिन की प्रतीकात्मकता गहरी है। जो धरती हमारे प्रियजनों को समेटती है, वही आशा का बीज भी संजोती है। फूल जो मुरझाते हैं, वे पुनर्जन्म की याद दिलाते हैं। मोमबत्ती की कांपती लौ हमें जीवन की नाजुकता और प्रेम की दृढ़ता दोनों की याद दिलाती है। कब्रिस्तान की नीरवता भी कहती है — “शांति में भी प्रेम बोलता रहता है।”

यह पर्व केवल स्मरण नहीं, बल्कि विश्वास है कि कोई भी सच में भुलाया नहीं जाता। यह हमें सिखाता है कि जैसे हम अपने दिवंगतों के लिए दीप जलाते हैं, वैसे ही हमें जीवितों के जीवन में भी रोशनी बनना चाहिए।

जब हम इस 2 नवम्बर की संध्या को अपने दीप जलाएँ, तो हर लौ हमारे लिए एक प्रार्थना और एक प्रतिज्ञा बने। एक प्रार्थना उन आत्माओं के लिए जो हमसे पहले चली गईं, और एक प्रतिज्ञा कि हम अपने आसपास के लोगों के लिए और अधिक प्रेम, करुणा और सेवा से भरा जीवन जिएँगे।

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