सोशल संवाद / नई दिल्ली/ब्रसेल्स ( सिद्धार्थ प्रकाश ) : 2025 का अंत आते-आते भारत और यूरोपीय संघ (EU) के बीच एक ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौता (FTA) होने की पूरी संभावना जताई जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन के बीच हाल ही में हुई उच्च स्तरीय बैठकों ने इस दिशा में ठोस कदम उठाने का संकेत दिया है। लेकिन यह समझौता सिर्फ व्यापारिक हितों का मसला नहीं, बल्कि वैश्विक भू-राजनीति का भी केंद्र बनता जा रहा है।
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पृष्ठभूमि: पुरानी बातों से सबक, नई दिशा में कदम
FTA पर बातचीत 2007 में शुरू हुई थी, लेकिन 2013 में यह ठंडे बस्ते में चली गई। वजह? यूरोप चाहता था कि भारत उसके ऑटोमोबाइल, शराब और उच्च तकनीक वाले उत्पादों के लिए अपने दरवाजे खोले, जबकि भारत अपनी फार्मा, टेक्सटाइल और कृषि उत्पादों के लिए बेहतर सौदे की मांग कर रहा था। 2021 में दोनों पक्षों ने बातचीत फिर से शुरू करने का फैसला किया और 2023 तक द्विपक्षीय व्यापार €88 बिलियन तक पहुंच गया। अब 2025 तक समझौते को पूरा करने की होड़ लगी है।
हालिया घटनाक्रम: “इंतजार की घड़ी खत्म?”
फरवरी 2025 में वॉन डेर लेयेन की नई दिल्ली यात्रा ने समझौते की संभावनाओं को और बल दिया। प्रधानमंत्री मोदी और EU अध्यक्ष दोनों ने ‘व्यवहारिकता और महत्वाकांक्षा’ को प्राथमिकता देने की बात कही। वॉन डेर लेयेन ने तो यहां तक कहा, “हम चीन पर निर्भरता कम करने के लिए भारत जैसे भरोसेमंद साझेदारों की तलाश कर रहे हैं।” अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत इस मौके का फायदा उठा पाएगा या यह बस एक और कागजी करार बनकर रह जाएगा?
मुख्य मुद्दे: किसका फायदा, किसका नुकसान?
1. शुल्क कटौती: EU चाहता है कि भारत ऑटोमोबाइल, वाइन और स्पिरिट्स पर आयात शुल्क घटाए, जबकि भारत अपनी फार्मा, कपड़ा और कृषि उत्पादों के लिए बेहतर सौदे की मांग कर रहा है।
2. बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR): यूरोप चाहता है कि भारत पेटेंट और कॉपीराइट कानूनों को सख्त करे, जिससे पश्चिमी कंपनियों को ज्यादा सुरक्षा मिले।
3. सतत विकास: व्यापार के साथ-साथ पर्यावरण और श्रम मानकों पर भी सहमति बनानी होगी।
भू-राजनीतिक असर: चीन की नींद उड़ गई?
इस समझौते का सबसे बड़ा असर चीन पर पड़ सकता है। यूरोप अपनी व्यापारिक निर्भरता चीन से हटाकर भारत की ओर मोड़ना चाहता है। “भारत एक लोकतांत्रिक देश है और व्यापारिक नियमों का सम्मान करता है, जबकि चीन पर भरोसा करना मुश्किल हो चुका है,” एक यूरोपीय विश्लेषक ने कहा। भारत के लिए भी यह एक सुनहरा अवसर है कि वह खुद को चीन के विकल्प के रूप में पेश करे। लेकिन क्या यह इतना आसान होगा?
“ग्लोबल ट्रेड में इस समझौते की गूंज अमेरिका और चीन तक पहुंचेगी,” एक भारतीय राजनयिक ने नाम न बताने की शर्त पर कहा।
चुनौतियां: सिर्फ मीठी बातें नहीं, कड़वे सवाल भी!
1. विनियामक मतभेद: भारत और EU के मानकों में भारी अंतर है।
2. राजनीतिक इच्छाशक्ति: घरेलू राजनीति भी इसमें अहम भूमिका निभाएगी।
3. संवेदनशील क्षेत्र: कृषि और ऑटोमोबाइल सेक्टर के हितों को साधना बड़ी चुनौती होगी।
निष्कर्ष: बड़ा मौका या सिर्फ एक और कागजी करार?
अगर यह समझौता 2025 तक पूरा हो जाता है, तो यह भारत और EU दोनों के लिए व्यापारिक और कूटनीतिक रूप से एक बड़ा कदम होगा। लेकिन अगर यह सिर्फ कागजी घोषणाओं तक ही सीमित रहा, तो यह एक और “अधूरी कहानी” बनकर रह जाएगी। मोदी सरकार इसे एक बड़ी कूटनीतिक जीत के रूप में पेश करेगी, लेकिन असली सवाल यह है कि इससे भारतीय उद्योगों को कितनी वास्तविक बढ़त मिलेगी?
अब देखना यह है कि 2025 का अंत आते-आते यह करार हकीकत बनता है या फिर पुरानी कहानी की तरह किसी और दशक तक लटकता रहता है!