December 7, 2024 4:20 am

वित्त वर्ष 2023 और 24 के बीच निजी क्षेत्र द्वारा नए प्रोजेक्ट की घोषणाओं में 21% की गिरावट आई है – जयराम रमेश

जयराम रमेश

सोशल संवाद / दिल्ली ( रिपोर्ट – सिद्धार्थ प्रकाश ) : मानसून भले ही कमज़ोर हो चुका है, लेकिन सामने आए नए तथ्यों से पता चलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर अभी भी कम से कम तीन तरह के काले बादल मंडरा रहे हैं।

पहला, कोविड-19 के बाद की रिकवरी के कारण 2022-23 के दौरान निजी क्षेत्र के निवेश में जो थोड़े समय का उछाल आया था, वो फ़िर से एक अनियमित रास्ते पर लौट आया है। वित्त वर्ष 2023 और 24 के बीच निजी क्षेत्र द्वारा नए प्रोजेक्ट की घोषणाओं में 21% की गिरावट आई है। यह भारत के उपभोक्ता बाजारों में निवेशकों के विश्वास की कमी और सरकार की अनुचित नीति निर्धारण एवं रेड राज द्वारा उत्पन्न निवेश के अनिश्चित माहौल को दर्शाता है।

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इस संदर्भ में, कंपनियां अपने कारोबार को बढ़ाने के बजाय कर्ज़ का बोझ कम करने के लिए मुनाफे का इस्तेमाल कर रही हैं। हम भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते वित्तीयकरण को देख रहे हैं। भारतीय उद्योग जगत – शायद सरकार की तरफ़ से संकेत लेते हुए – शीर्ष-स्तरीय राजस्व वृद्धि के बजाय शेयर बाजार के मूल्यांकन पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के मध्यम और दीर्घकालिक भविष्य के लिए बेहद ख़राब संकेत है, क्योंकि अर्थव्यवस्था का विकास इंजन – निजी क्षेत्र का निवेश – कमज़ोर होता जा रहा है।

दूसरा, सरकार की प्रमुख मेक इन इंडिया योजना के शुरू होने के दस साल बाद भी भारत का मैन्युफैक्चरिंग स्थिर है। GDP में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी वही है जो दस साल पहले थी। कुल रोज़गार में हिस्सेदारी के रूप में, मैन्युफैक्चरिंग में मामूली गिरावट आई है। वैश्विक व्यापारिक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी भी काफ़ी हद तक स्थिर हो गई है, और भारत की GDP में हिस्सेदारी के रूप में निर्यात गिर रहा है।

दरअसल, 2005-15 की अवधि में वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी बहुत तेज़ी से बढ़ी थी, जो काफ़ी हद तक प्रधाधमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल के अनुरूप थी। परिधान जैसे श्रम प्रधान क्षेत्रों में, निर्यात 2013-14 के 15 बिलियन डॉलर से गिरकर 2023-2024 में 14.5 बिलियन डॉलर हो गया है। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में यह सिकुड़न काफ़ी हद तक नॉन-बायलॉजिकल प्रधानमंत्री की अस्पष्ट व्यापार नीति के कारण है – जहां यह उच्च टैरिफ के माध्यम से वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में भागीदारी को हतोत्साहित करती है, जबकि चुपचाप बड़े पैमाने पर आयात के माध्यम से चीनी डंपिंग की अनुमति देती है।

तीसरा, वर्ष 2022-23 के लिए उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण (ASI) ने भारत के श्रमिकों के लिए वास्तविक मजदूरी और उत्पादकता में गिरावट का खुलासा किया है। प्रति श्रमिक जीवीए (श्रम उत्पादकता का एक माप) में वृद्धि 2014-15 में 6.6% से धीमी होकर 2018-19 तक 0.6% हो गई। COVID काल की सांख्यिकीय अनियमितता के बाद, कर्मचारी उत्पादकता वित्त वर्ष 2023 में फ़िर से कम हो गई है। श्रम उत्पादकता में इस कमी ने वास्तविक वेतन वृद्धि को प्रभावित किया है, खासकर बढ़ती मंहगाई के बीच। जब तक वास्तविक मजदूरी स्थिर होगी, खपत कमज़ोर रहेगा। नतीज़ा – निवेश कम होगा, जिससे कि भारत के विकास में लगातार अवरोध उत्पन्न हो रहा है।

ये केवल वे मुद्दे हैं जो पिछले कुछ हफ़्तों में सामने आए हैं, लेकिन पिछले दस वर्षों में तो इनसे भी अधिक हानिकारक आर्थिक रुझान देखे गए हैं, जिनमें चंद लोगों का एकाधिकार, भयंकर बेरोज़गारी और आसमान छूती महंगाई आदि शामिल हैं। नॉन-बायोलॉजिकल प्रधानमंत्री और उनके लिए ढोल पीटने वालों द्वारा अर्थव्यवस्था पर बढ़ा चढ़ा कर दावे किए जा रहे हैं। इन दावों से जो छुपाने का प्रयास किया जा रहा है, वे ऐसी रुकावटें साबित होंगे जो आने वाले वर्षों में विकास को अवरुद्ध कर देंगे, अगर अभी  उन्हें  गंभीरता से नहीं लिया गया।

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